आयुर्वेदिक औषधि क्या है? | What is Ayurvedic Medicine

आयुर्वेदिक औषधि क्या है? | What is Ayurvedic Medicine

आयुर्वेदिक औषधि की प्रभावशीलता एक प्रामाणिक तथ्य है, लेकिन आधुनिक युग में इस प्रणाली की औषधि के प्रति चिंता जताई जाती है। जैसा हम सभी जानते हैं कि महर्षि चरक और आचार्य शुश्रुत द्वारा रचित ग्रंथ आयुर्वेद के नींव है और वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जीविका के लिए आहार आवश्यक है।

महर्षि चरक ने ६ पहलू स्पष्ट किये हैं जिससे यह तय किया जा सके कि किस परिस्थिति में क्या खाने योग्य है अथवा नहीं। वे कहते हैं कि भोजन को पथ्य (खाने योग्य, स्वास्थ्य) और अपथ्य (खाने योग्य नहीं, हानिकारक) बनाने के लिए निम्न कारक प्रमुख है:

मात्रा (भोजन की) समय (कब उसे पकाया गया और कब उसे खाया गया) प्रक्रिया (उसे बनाने की) जगह या स्थान जहां उसके कच्चे पदार्थ उगाए गए हैं (भूमि, मौसम और आसपास का वातावरण इत्यादि) उसकी रचना या बनावट (रासायनिक, जैविक, गुण इत्यादि) उसके विकार (सूक्ष्म और सकल विकार और अप्राकृतिक प्रभाव और अशुद्ध दोष, यदि कोई है तो) आचार्य शुश्रुत चिकित्सा के दृष्टिकोण से विभिन्न प्रकार के आहार को उसके सकल मूल गुण से उसका अंतर बताते हैं, और किस को किस परिस्थिति में क्या ग्रहण करना यह निम्न में बताते हैं।

1 शीत (ठंडा)
इस किस्म के भोजन में ठंडा करने की प्रकृति होती है और यह उन के लिए अच्छा होता है जो पित्त, गर्मी और हानिकारक रक्त वृद्धि से पीड़ित है। आत्यादिक यौन भोग या विषाक्त प्रभाव से कमजोर व्यक्तियों को इसकी सलाह दी जाती है।

2 उष्ण (गर्म)
जो लोग वात और कफ दोष के रोगों और समस्याओं से पीड़ित है उन्हें इसकी सलाह दी जाती है। पूरा पेट साफ होने के बाद और उपवास इत्यादि के बाद आहार ग्रहण करने की मात्र कम होनी चाहिए।

3 स्निग्ध (कोमल और स्वाभाविक रूप से तैलाक्त)
उचित मात्रा में इस किस्म के भोजन को ग्रहण करने से वात दोष को दबाया जा सकता है। शुष्क त्वचा, कमजोर या दुबला और अत्यधिक दुबलेपन से पीड़ित लोगों के द्वारा इसका उपयोग लाभकारी होता है।

4 रुक्स (ऊबड और शुष्क)
कफ दोष को नियंत्रित करने में सहयक है। जिन्हें मोटेपन की प्रवृति होती है और जिनकी तेलयुक्त त्वचा होती है उन्हें ऐसा भोजन आवश्यक है।

5 द्रव्य (तरल या जल)
यह आहार उन लोगों के लिए हैं जो शरीर के भीतर रूखेपन से पीड़ित है ( जिससे फोंडे, पेप्टिक अल्सर और अस्थि बंधन इत्यादि जैसे विकार हो सकते हैं) उन्हें इस प्रकार के आहार को काफी मात्र में ग्रहण करना चाहिये।

6 शुष्क (सूखा)
जो लोग कुष्ठ रोग, मधुमेह ( मूत्र से शुक्राणु या महत्वपूर्ण हार्मोन का निकास ), विसर्प (तीव्र त्वचा रोग ) या घावों से पीड़ित है उन्हें सूखा आहार देना चाहिये।

7 वत्ति प्रयोजक (स्वाभाविक रूप से सुखदायक)
स्वस्थ लोगों के लिए पोषक आहार वह है जो महत्वपूर्ण तत्वों और आतंरिक शक्ति को मजबूत और स्थिर रख सके और जिससे रोगों के प्रति प्रतिरोध बढ़ जाए।

8 प्रशमनकारक (त्रिदोष का संतुलन)

स्वस्थ और बीमार लोगों में भोजन का चुनाव  मौसम और दोष के स्तर के अनुसार होना चाहिये। जैसे गर्म और खट्टा और मीठा भोजन बारिश के मौसम में वात दोष को दबाने में सहायक है।

9 मात्राहीन (प्रकाश)
जिन लोगों को यकृत की समस्या होती है, जो किसी अन्य रोग के कारण ज्वर या भूख की कमी से पीड़ित है ने हल्का और आसानी से पचने वाला भोजन ग्रहण करना चाहिये। (यह सूखा या तरल, गर्म और ठंडा प्रकार, रोग की प्रकृति के अनुसार और त्रिदोष की स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार होना चाहिये।

10 एक कालिक (एक समय)
जो लोग भूख की कमी या कमजोर पाचन तंत्र से पीड़ित हैं उन्हें भूख और उपापचयी विकारों को सामान्य होने के लिए एक बार भोजन लेना चाहिये।

11 द्विकालिक (दो बार)
सामान्यतः स्वस्थ लोगों ने उचित भोजन दिन में दो बार लेना चाहिये।

12 औषधियुक्त (चिकित्सायुक्त भोजन)
जो लोग मुंह से दवाई नहीं ले सकते उन्हें उचित भोजन में मिला कर दिया जा सकता है। कभी कभी चिकित्सक वनस्पति या जड़ी बूटी विशिष्ठ रोगों में आवश्यक आहार के रूप लेने की भी सलाह देते हैं।

दोनों महर्षि चरक और आचार्य सुश्रुत हमें अच्छा स्वास्थ्य बनाने और उसे स्थिर रखने की सलाह देते हैं और इससे भी आगाह करते हैं कि कोई क्या खाता है और उसे कैसे खाता है, वह रोग होने का प्रमुख कारण बन सकता है और वे हमें इस बात से भी सजग करते हैं कि वह दूषित भी हो सकता है। हमें इन पहलुओं को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य भोजन करना चाहिये और स्वस्थ रहना चाहिये।

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